घिन्ड़ुड़ी (Sparrow) |
अब हमारे ट्रिप की बात करते हैं, मैं और मेरे भाई हुकुम नेगी ने इस बार होली गांव में मनाने का फैसला किया, दिल्ली की होली और हमारे गांव की होली में काफी अंतर है वहां आज भी बच्चे गांव-गांव घूमकर लोगों के घरों में होली गाते हैं और बदले में लोग उन्हें पैसे या दाल-चावल आदि देते हैं यह एक प्राचीन परंपरा है और मुझे खुशी है कि अभी तक यह जीवित है।
शुक्रवार से ही दिल्ली में मौसम काफी उग्र था जबकि हमारे गांव में बर्फबारी शुरु हो चुकी थी। हम शनिवार को प्रात: 4 बजे दिल्ली से निकले तो हल्की-हल्की बारिश हो रही थी लेकिन दिल्ली पार होते ही मौसम बिगड़ने लगा जिससे सड़क पर चले रहे वाहनों की रफ्तार कम हो गयी, 2-3 जगह पर तो ट्रक पलटे मिले। हम नेशनल हाइवे 24 पर चलते हुए जब गढ़ गंगा पहुंचे तो रात खुलने लगी थी साथ में हल्की-हल्की बारिश हो रही थी जिससे पूरा नजारा एकदम खुशनुमा और आकर्षक लग रहा था। सड़क पर सरपट दौड़ते वाहन, बादलों और सूरज की लुका-छुपी, जलती हुई स्ट्रीट लाइटें और सड़क किनारे लगे पेड़-पौधें से गिरती पानी की बूंदे हमारे ट्रिप को और भी यादगार बना रही थी।
मुरादाबाद-रामपुर बाईपास से हमने कार नेशनल हाइवे नंबर 121 की तरफ मोड़ और ठाकुरद्वारा होते हुए करीब 9 बजे हम काशीपुर पहुंचे वहां अपने भाई के घर नाश्ता करने के बाद करीब 11 बजे गांव की तरफ रवाना हो गये। काशीपुर इस समय उत्तराखंड के फौजियों और बाकी अन्य लोगों के लिए हॉट प्रॉपर्टी है, हर तरफ बनते मकान इस बात का पुख्ता करते हैं। बिना किसी मास्टर प्लान के बनते घर आने वाले समय काशीपुर को भी एक प्रदूषित शहर बना देंगे।
हम करीब 12 बजे रामनगर पहुंचे, रामनगर में भी काफी भीड़-भाड़ है, इसका एक कारण इसका कॉर्बेट नेशनल पार्क का बेस स्टेशन होना भी है। हमारे गांव के लिए सड़क कार्बेट नेशनल पार्क के बीच से होकर गुजरती है रास्ते में ढिकुली और मोहान जगहें आती जहां बहुत सारे लग्जरी कॉटेज, रिर्सोट्स और छोटे होटल बने हुए है यहां सैलानियों का हर वक्त जमावड़ा रहता है। रास्ते में गर्जिया मां का मंदिर भी पड़ता जिसमें स्थानीय और बाहरी लोगों की बड़ी आस्ता है, यह मंदिर रामगंगा नंदी के बीचों बीच एक चोटी पर बना हुआ है।
मोहान से आगे बढ़ते हुए हम करीब 1 बजे मरचूला पहुंचे, यह जगह भी धीरे-धीरे पर्यटन स्थल के तौर पर विकसित होती जा रही है। यह अल्मोड़ा और पौड़ी जिले की सीमा पर स्थित है करीब 4 किलोमीटर आगे से पौड़ी गढ़वाल जिले की सीमा शुरु हो जाती है। हम पहाड़ों पर बल खाती सड़क पर चले जा रहे थे और प्रकृति का आनंद ले रहे थे बाहर का मौसम काफी सर्द था तापमान लगभग 11 डिग्री सेल्सियस के करीब था और बूंदा-बांदी भी हो रही थी। हम सल्ट महादेव, खिरैरी खाल, जड़ाऊखांद, धुमाकोट होते हुए करीब 3 बजे दीबा पहुंचे, मोहान से यहां तक रास्ता खड़ी चढ़ाई वाला है इसलिए यहां की ऊंचाई समुद्रतल से लगभग 2500 मीटर से ज्यादा है। यहां दीबा मां का मंदिर है जो मां काली का एक रुप है मां का मुख्य मंदिर यहां से 3 किमी की चढ़ाई पर बना हुआ है वहां से आप 360 डिग्री का नजारा देख सकते हैं। यहां पर 12 महीने सर्दी रहती है लेकिन आज तो भयंकर सर्दी थी और हर जगह बर्फ से अटी पड़ी थी, हवा बहुत तेज थी जिसके कारण हम ठंड से कांप रहे थे इसलिए हमने यहां ज्यादा देर ठहरना मुनासिब नहीं समझा।
यहां से सड़क नीचे उतरना शुरु हो जाती है जिसमें 3 खतरनाक बेंड भी आते हैं, सड़क के दोनों तरफ बर्फ की सफेद चाद बिछी हुई थी और उस पर बुरांस के पेड़ो पर खिले चटक लाल रंग के फूल मन को चंचल बना रहे थे, बेंड्स खत्म होने के बाद कोठिला गांव और उसके बाद मैठाणाघाट आता है। कभी यहां बड़ी चहल-पहल रहती थी लेकिन अब तो लोग कम ही दिखते हैं। यहां से मेरे घर की दूरी लगभग 3 किमीं है। करीब 4 बजे हम अपने लोकल मार्केट में पहुंचे और गाड़ी खड़ी करने के बाद करीब 5 बजे तक घर में पहुंच गये।
रात काफी सर्द थी और तेज बारिश हो रही थी हमें आशंका थी कि रात में फिर से बर्फबारी न हो जाये लेकिन जब सुबह उठे तो मौसम एकदम साफ था और आसमान एकदम नीला। धूप आते ही सर्दी गायब हो गयी जिससे थोड़ी राहत मिली।
आज हमने हुकुम के गांव डांडा ग्वीन जाना है जो हमारे घर से लगभग 6 किलोमीटर दूर है जिसमें से 3 किमी. एकदम खड़ी चढ़ाई है। हम 10 बजे ग्वीन पहुंचे सड़क यहीं तक है इसके बाद ट्रेक करने जाना होता है, करीब आधा किमी चलने के बाद जंगल शुरु हो जाता है यहां बांझ, बुरांस चीड़ और न जाने कितने प्रकार के पेड़ पौधे हैं, इन पेड़ों पर बैठी चिड़ियों की चहचहाहट और हवा से हिलते चीड़ के पत्तों की सरसराहट ने हमारी सारी थकान दूर कर दी, हम काफी देर तक वहां बैठे रहे।
हम करीब 12 बजे डांडा ग्वीन पहुंचे यह एक छोटा सा गांव है जो समुद्रतल से करीब 2500 से 2700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और चारों ओर से जंगल से घिरा हुआ है, यहां हमने बचपन में बहुत दिन बिताये हैं अक्सर गर्मियों की छुट्टियों में यहां आते थे और काफल एवं सेबों का मजा लेते थे। यहां भी अब काफी कम परिवार रहते हैं बाकी सब बेहतर जिंदगी की तलाश में बाहर चले गये हैं। हम करीब 4 बजे वापिस मैठाणाघाट आ गये वहां होली के लिए हमने थोड़ी बहुत खरीददारी की और वापिस घर आ गये।
आज हमने हुकुम के गांव डांडा ग्वीन जाना है जो हमारे घर से लगभग 6 किलोमीटर दूर है जिसमें से 3 किमी. एकदम खड़ी चढ़ाई है। हम 10 बजे ग्वीन पहुंचे सड़क यहीं तक है इसके बाद ट्रेक करने जाना होता है, करीब आधा किमी चलने के बाद जंगल शुरु हो जाता है यहां बांझ, बुरांस चीड़ और न जाने कितने प्रकार के पेड़ पौधे हैं, इन पेड़ों पर बैठी चिड़ियों की चहचहाहट और हवा से हिलते चीड़ के पत्तों की सरसराहट ने हमारी सारी थकान दूर कर दी, हम काफी देर तक वहां बैठे रहे।
डांडाग्वीन से दिखता खूबसूरत नजारा |
गांव में होली ज्यादातर कोरे रंगों से ही मनाई जाती है क्योंकि पानी से खेलने की भूल कोई नहीं कर सकता है क्योंकि पानी बहुत ठंडा होता है। हमारा होली का अनुभव काफी अच्छा रहा।
अगले दिन सुबह उठने के बाद हम दिल्ली के लिए रवाना हुए, हमने पहले ही तय कर दिया था इस बार हम लैंस डाउन होते हुए जायेंगे। लैंसडाउन एक पर्यटन स्थल है और साथ ही गढ़वाल राईफल की छावनी भी है हमने रास्ते में ताड़केश्वर धाम में दर्शन किए जो भगवान शिव को समर्पित मंदिर है यह मंदिर देवदार के पेड़ों के झुरमुट के बीच बना हुआ है। लंबे-लंबे देवदार के पेड़ों के बीच बना यह मंदिर काफी प्रसिद्ध है।
दर्शन करने के बाद हम दिल्ली के लिए रवाना हो गये और करीब 8 बजे दिल्ली पहुंच गये। कुलमिलाकर हमारा यह ट्रिप काफी शानदार और रोमांचक रहा इस तरह के ट्रिप हमें फिर से तरोताजा कर देते हैं और हमारे अंदर एक नयी शक्ति का संचार भी करते हैं जिससे जिंदगी नीरस और तनावपूर्ण नहीं लगती है।
ताड़केश्वर धाम |
दोस्तों आप भी थोड़ा सा समय निकालें और निकल जाइये इस प्रदूषण भरे माहौल से दूर। अगर आप तय नहीं पा रहे हैं कि कहां जाना है तो मुझे बताइये मैं आपकी मदद करुंगा।
धन्यवाद!